कभी अपने खाली वक़्त में उलझा, तो कभी जीवन की व्यस्तता में सुलझा, आम आदमी नैतिकता के लिए वक़्त ही नहीं निकाल पाता ।कभी ईर्ष्या, कभी क्रोध, कभी चिंताएँ, तो कभी भय जैसी कई भावनाएँ उसके अपने ही मूल विचारों की नींव को कमज़ोर करती रहती हैं । इस वास्तविक जीवन की कठिन प्रतिस्पर्धा उसे अपने ज़मीर, इमान, मज़हब, ज़िम्मेदारियों से हर दिन दूर करती जाती है ।
ईश्वर अगर अपनी इस माटी की रचना में प्राण फूँक कर अगर भूल जाता, तो यह मानव शरीर एक मूर्तिकार की मूर्ति की तरह होता जो तारों के टकराव से किसी भी क्रिया में मशगूल हो जाती है। पर उस परमपिता ने मानव के शरीर को दो ऐसे तिलिस्मी भाग दिए कि वो नायाब बन गया । पहला जादुई खण्ड था उसका मस्तिष्क जो उसकी अर्थ कल्पना करने की शक्ति को उर्ध्व दिशा प्रदान करता है । दूसरा भाग तो उस सतनाम की ऐसी विशिष्ट तखलीक है कि वो किसी भी इंसान की सत्ता निमिष मात्र में गिरा दे या पल भर में उसे तख्तो-ताज पर बैठा दे । वह है दिल जो कभी पिघल जाए तो नीर है ,कभी ठहर जाए तो चट्टान है।
सदियों पहले समाज का हर व्यक्ति ऐसी रणनीति अपनाता था कि स्वयं की इच्छाओं को मस्तिष्क से नियंत्रित करता था और दूसरों का जहाँ भी ज़िक्र होता अपने दिल की सुनता था। मिट्टी से जुड़ा आदमी बहुत खूब जानता था कि वो मिट्टी ही है जिससे वो बना है और वो मिट्टी ही है जिसमें उसके अंग-अंग बिखर कर मिल जायेंगे। इससे भी बढ़कर तो यह चीज़ थी कि उसे अपनी रचना के इस मूलतत्व की महक उन सभी से भी आती थी जिनसे वह खुदको सुरक्षित महसूस करता था। तभी उनके दुःख में उसकी आँखे भी छलकती थीं और उनकी ख़ुशी में शामिल होकर आंखे चमक उठती थीं ।यही व्यव्हार धीरे -धीरे नैतिकता के विषय के पाठ दर पाठ बनने लगे।हर बच्चा अपने माँ -बाप से यही पाठ सीखकर बड़ा होने लगा और उम्र लेते-लेते दूसरों को सिखाने लगा।
धीरे-धीरे समाज का रुख बदलने लगा, इस विषय के भी पाठ बदलने लगे, निरंतर बदलाव का यही क्रम विषय की अहमीयत को धीरे -धीरे इस तरह मिटाने लगा कि आज वो इतिहास की तरह सिर्फ सराहा जाता है,सिर्फ याद किया जाता है ...
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