आज की दुनिया का एक नया रिवाज़ है -कृत्रिमता । चीजों को,घटनाओं को ,जीवों को कितना भी कृत्रिम रूप देने की कोशिश की जाए पर समय और हालात के चलते उनका मूल रूप कभी -कभी उभर ही आता है। आज का मानव जिस रूप में दिखता है वह उसका मूल रूप नहीं है । आज यह संसार इस तरह से ढलने लगा है कि हर इंसान के कई चेहरे होने लगे हैं । वो पल दो पल के फ़ासले में ना जाने कितने चेहरे बदल लेता है । इस प्रकार मुखौटे बदलते- बदलते वो अपना असली चेहरा जैसे भूल ही जाता है ।लोग अक्सर सोचते कुछ और हैं पर खुदको समाज की समकालीन बहु प्रचलित नीतियों के अनुसार ढालते -ढालते कुछ और ही करने लगते हैं। इसमें गलती किसी व्यक्ति विशेष की कहीं नहीं है । वक़्त और हालातों का ज़ोर इतना ज़बरदस्त रहा कि उनसे होड़ में लगे मानव की यह स्थिति अपने आप हो गई। कृत्रिमता के इस परदे में से बहुत बार एक असल इंसान हुबहू वैसा ,जैसा उसे परमपिता ने बनाया था ,कई बार झांकता है। एक टीस जो उसके अंदर दबी रहती है कई बार फूट पड़ती है और तभी वो कुछ ऐसे काम कर जाता है कि इंसानियत का सिर फक्र से बहुत ऊँचा हो जाता है।
आज के वक़्त में भी ऐसे कई प्रतिदर्श सामने आते रहते हैं जो इसी बात को प्रमाणित भी करते हैं और मनुष्यत्व को बरकरार भी रखते हैं । जो भी ऐसे उल्लिखित विशेष चरित्र होते हैं उन्हें संप्रदाय बहुत मान - सम्मान से पुरुस्कृत करता है । किन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं कि जो लोग इसकी सराहना करते हैं वो सभी लोग मात्र तमाशबीन बने रहना चाहते हैं । उनमें से कई लोग दिन में कई बार मजबूर लोगों की कसक से क्षण भर के लिए समदुखी हो जाते हैं । पर अगले ही पल उनके जीवन पर जिस कसाव-खिंचाव की हुकुमत चलती है ,वह उन सभी भावनाओं पर फ़तह हासिल करके उनको अपने इलाक़े से दूर कर फेंकती है। आज के इस युग में जहाँ प्रतिस्पर्धा की बहुतायत है ,हर मानव पर ,उसके जीवन पर इसी तनाव नामक विद्युत् शक्ति का ही आधिपत्य स्थापित हो चुका है और इस शासक की यही उत्कृष्टता है कि यह हर इंसान के सभी उमदा जज़्बातों को ख़त्म कर देता है । फिर जो शेष रह जाता है वह होता है एक खुदगर्ज़ इंसान जो अभी कुछ देर पहले किसी और के दुःख में अनिमंत्रित होते हुए भी सम्मिलित होता नज़र आ रहा था।
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