The Journey of Million Emotions: ओह साहब कुछ देते जाना...

Saturday, September 29, 2012

ओह साहब कुछ देते जाना...




ओह साहब कुछ देते जाना 
बहुत भूख लगी है,कुछ देते जाना
कई दिन हुए भरपेट खाया नहीं ,
जो पेट में आग है, तो पानी भी इसे रास आया नहीं, 
जो मिल जाये वो ही लज़ीज़ होगा 
स्वाद का ख्याल सदियों से ख्वाबों  में भी आया नहीं, 
आप जो आधा खाकर थाली में छोड़ आये हैं 
बस उतना ही दे देते ,तो उसकी जन्नत से होड़ नहीं, 
ओह साहब कुछ देते जाना ...

ओह साहब कुछ देते जाना
तन के कपडे चिथड़े हुए,कुछ देते जाना 
कई दिन हुए यह मैला गिलाफ़ धोया नहीं,
यह इस कदर विदीर्ण है कि क्या कहूँ 
मेरे सारे अंग भी इसमें छिपते नहीं,
मेरे इस बुरे हाल में सर्द हवाएं भी दिल्लगी करने में पीछे नहीं, 
फैशन की ऋतू में जो आपके वस्त्र चलते न हों  
 मुझे सिर्फ वो दे देते,तो उससे अच्छी सौगात मेरे लिए कोई होगी नहीं,
 ओह साहब कुछ देते जाना ... 

ओह साहब कुछ देते जाना 
पैर का जूता जर्जर हुआ,कुछ देते जाना 
कई दिन हुए इसको पौंछा नहीं,  
चलता हूँ तो भ्रम होता है की पैर में जूता नहीं, 
देखता हूँ इसकी ओर तो लगता है 
यह जूता असल में भ्रम है ,जूता नहीं, 
इसका तल्ला कंकड़ -कांटे का है, और फीते की जगह नहीं, 
प्राचीन काल का होकर जो जूता पड़ा है
 घर के किसी मलिन प्रान्त में ,
बस वो दे देते,तो उसकी कीमत का मोल नहीं, 
 ओह साहब कुछ देते जाना ... 

ओह साहब कुछ देते जाना
कुछ बनता है,तो देते जाना 
नहीं हो,तो सिर्फ मुस्कुराते जाना 
कई दिन हुए कोई प्यार से मुस्कुराया  नहीं, 
मेरी इस हालत पर लोगों को तरस तो आया 
पर प्यार किसी को आया नहीं ,
मेरा बचपन पिता के प्यार से दूर है
 और माँ की ममता का भी इस पर साया  नहीं,
 फिर भी मेरी मुस्कुराने की कोशिश में कोई विराम आया नहीं, 
कितने भी सितम करे चाहे जिन्दगी मुझपर 
जो मुझे हरा दे,वो हौसला जिन्दगी में अभी आया नहीं,
 ओह साहब कुछ देते जाना ...


ओह साहब कुछ देते जाना
कुछ बनता है,तो देते जाना 
नहीं हो,तो सिर्फ मुस्कुराते जाना 
ओह साहब कुछ देते जाना ...........

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