सुबह होते ही मैं जागता हूँ,
आँख खुलते ही मैं भागता हूँ,
भागता हूँ रोज़ी-रोटी के पीछे,
दबा जाता हूँ इन जिम्मेदारियों के नीचे ।
न जाने कितनी बार रोटी जुटाते-जुटाते,
मैं भूखा ही सो गया,
भूख लगी भी, तो उसे मिटाना भूल गया ।
तेल-घी की कीमत चुकाते-चुकाते,
मैं जल की कीमत तो भूल गया ।
यज्ञ-हवन की सामग्री जुटाते-जुटाते,
मैं ईश्वर को ही भूल गया ।
भाषा ज्ञान करते-करते,
मैं दिल में जो बात थी,वो ही भूल गया ।
भ्रष्टाचार-अत्याचार की निंदा करते,
मैं खुद सदाचार तो भूल गया ।
न जाने कितनी बार डॉक्टर की फीस के पीछे,
मैं दर्द का एहसास भी भूल गया ।
दुश्मनों से बचते-बचते ,
मैं दोस्तों की दोस्ती ही भूल गया ।
गाड़ियों में दौड़ते-भागते,
मैं जिन्दगी का ठहराव भी भूल गया ।
इस जिन्दगी को जीते-जीते,
शायद मैं या यूँ कहूँ यकीनन मैं जीना ही भूल गया ............
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