The Journey of Million Emotions: अपनों से दूरी .............

Sunday, December 16, 2012

अपनों से दूरी .............

गुज़रे दिनों कई नातेदारों-रिश्तेदारों से बात हुई । यह इत्तेफ़ाक था या छल था कि जिससे भी सम्भाषण के लिए कुछ पलों का भी बंदोबस्त किया  उसीकी आवाज़ में उस परिसीमित वक़्त में भी कई उतार-चढ़ाव देखे ।ध्वनि की इन्ही पेचीदा उतार-चढ़ाव में गिरते, लुड़कते, फिसलते मैं अतीत की घाटी में आ पहुँची । वो वक़्त था जब कोई भी पर्व - प्रयोजन अपनों की याद दिलाता था, उनसे बात करने की अभिलाषा बेक़रार कर देती थी ।तार-पत्र जब जिस घर की दहलीज़  पर आता तो वह घर उस गलियारे की हर मंडली की परिचर्चा का विषय बन जाता । अक्षर-ज्ञान भी तब असाधारण था इसीलिए कागज़ के टुकड़े को लेकर दूर-दूर तक कभी पत्र लिखवाने जाते तो कभी पढवाने ।लिखा गया हर शब्द वास्तविकता में डूबा और भावनाओं से ओत-प्रोत होता।

 पर आज ऐसे कई यन्त्र हमारी ज़िन्दगी के सदस्य अत्यंत तीव्र गति से बनते जा रहे हैं जो एक पल के भी बहुत सूक्ष्म अंश में किसी से भी कहीं भी हमारा संपर्क स्थापित कर सकते हैं ।पर जीवन की वेदना तो देखिये, इन यंत्रों - उपकरणों की उपलब्धता ने  हमारी प्रारंभिक और मौलिक भावनाओं को ही फ़ासले  पर ला छोड़ा है ।
जब साधन न थे तो कह्ने - सुनने को बहुत कुछ था पर आज इतने अद्भुत और प्रशंसनीय साधन हैं तो कहने या सुनने का वक़्त नहीं, जो वक़्त मिलता है तो मन का समर्थन नहीं  और जो मन मिल जाए तो पता चलता है कुछ कहने - सुनने की बात ही न रही। तकनीकी उपलब्धियों का यह  इनाम है कि आज आदमी सैंकड़ों - हज़ारों लोगों की तर्कसंगत में रहता है। पर फिर भी यह सवाल बार- बार मन - मस्तिष्क में हाज़िर हो  जाता है कि जो आविष्कार  मुझे मेरे अपनों से जोड़े रखने के लिए थे वो ही कहीं विरोधी कार्यनीति तो  नहीं अपना रहे ।

वक़्त मिलते ही आप यह तो ज़रूर जान लेते हैं  कि जिन सभी लोगों की तर्कसंगत में आप रहते हैं  उन्होंने सार्वजनिक रूप से क्या उल्लिखित किया है ।पर अपने दिल की एक भी रग को छूकर बताईये कि आप जो  तथाकथित शुभचिंतकों की सूची क़ायम रखते हैं  उनमें से कितने यथार्थ में आपकी भावनाओं को महत्वपूर्ण रूप से स्पर्श कर पाते हैं ।यह एक बहुत  कड़वी सच्चाई है जिसे हमें शुरुआत में मानने में तो बहुत तकलीफ़ होगी पर थोड़ा  सा भी  विचार - विमर्श करने पर यही हक़ीक़त लगने लगेगी ।
यह नया रिवाज़ हमारे नज़दीकी  रिश्तों को भी ख़ामोशी से हमसे दूर कर रहा है ।आपने खुद भी अब तक तो इसकी  सशक्त उपस्थिति को अनुभव कर ही लिया होगा। एक साधारण सा द्रष्टान्त जो एक उपहास सा भी लगता अगर वो इस कदर सामान्य न हो जाता - एक छत के नीचें ,एक फैलाव में जितने भी भाई -बन्धु ,परिवारजन बैठें हैं ,सब शांत हैं,अपने - अपने उपकरणों से दूर रहने वालों से नज़दीकी बढ़ा रहें हैं और जो उनके  सबसे क़रीबी हैं वो वही लोग हैं जो उनके साथ बैठे हैं फिर भी वो  अनजाने में उनके साथ बिताने के जो  दुर्लभ क्षण मिले हैं, गवा रहे हैं ।
मतलब यह कि यह तकनीकी  औपचारिकता हमें अपनों से दूर कर रही है और हमारा समय उनके खाते में जा रहा है जिनका हमारी जिन्दगी में होना किसी औपचारिकता से  बढ़कर नहीं है ।
अगर आपकी नज़र से ऊपर उल्लिखित हुआ एक भी शब्द छूटा न हो तो  मैं सुरों की घाटियों और चट्टानों में फिर से आपको आमंत्रित करती हूँ ।
 जिससे भी आप यंत्रों के माध्यम से बात करें, संवाद का पहला अंश इतना  बनावटी होगा कि कुछ पलों में  अधिकतम दिखावा कर दिया जाएगा , अपनी सारी क्षणभंगुर भावनाओं को संवारके ,सजाके प्रदर्शित कर दिया जाएगा ।
यदि आपकी गपशप कुछ और पल खिंच जाए तो जो साज अभी-अभी इतनी सम्मोहक थी, बदलती सी जाएगी और फिर उसमें कई नए -नए पात्र शामिल होते जाएगें और वो भी खलनायक बन कर । जिसका भी नाम उन कुछ पलों में ज़हन में आया उसकी तो खामियों की तालिका उसी अवधिकाल में बन कर तैयार हो जाएगी ।
 जैसे ही यंत्रों के माध्यम से रचा यह आभासी अभिनय ख़त्म होगा तो इसके नकलीपन का अंदाज़ा लग जाएगा क्योंकि दोनों छोर जो अभी तक एक नज़र आ रहे थे अब अचानक एक-दूसरे  की किसी दूसरे  से निंदा करते नज़र आएंगे।
फिर हो सकता है उनमें से किसी एक को यह महसूस हो कि उन दोनों की मानसिकता में न ही कोई मेल है और न ही स्नेह जैसी कोई भी अभिवृति बाकी है ।यह विचार उनके पुनःसंपर्क में कुछ विलंभ का कारण बन जाता है ।जब भी फिर से बातचीत होगी तो  इतने वक़्त बाद बात हुई है उसकी ख़ुशी तो भूल कर भी याद न आएगी और शिकायतों की लम्बी सूची सारे संवाद पर छा जाएगी ।बातचीत का यही क्रम इसी चक्र में फिर भी ता-उम्र कायम रहेगा और इसके पीछे प्रेम ,स्नेह ,लगाव जैसी कोई भी भावना जवाबदेह न होगी ।
  आपस में यंत्रों की सहायता से यह हाजिरी लेने और देने का क्रम सिर्फ लेखा - शास्त्र जैसा एक विवेचनात्मक विषय बन कर रह गया है। हर व्यक्ति जिन्दगी  भर रिश्तेदारों के ऐसे ही कई खाते अनुरक्षित करता रह जाता है। सवाल यह उठता है कि जब प्यार-प्रेम जैसी कोई भावना किसी संबंध में जीवित ही नहीं रहती तो उस प्राणहीन संबंध को अनिवार्यतः जिन्दा रखने के लिए हम तकनीकी साधनों का क्यों इस्तेमाल करते हैं और जिन्दगी भर उन्हें मशीनों की मदद से चलाने की तकलीफ क्यों उठाते रहते हैं ।
जब भावनाओं की जगह औपचारिकता लेने लगे और स्पष्टवादिता की जगह झिझक या दिखावटी शिष्टाचार लेने लगे तो वह एक सचेतक है कि अब सच्चाई को स्वीकार कर लेना चाहिए क्योंकि अब यह रिश्ता सिर्फ लेखाविधि ही बन कर रह गया है।यह दुसाध्य विषय अपनी सूची में निंदा ,बैर , तनाव ,जलन ,दिखावा जैसे खण्डों को ही जगह देता है ।तो डंके की चोट पर यह कहा जा सकता है कि जब अपनों से बात सिर्फ लेन -देन के व्यवहार की तहत होने लगे तो कोई भी साधन उन्हें जिन्दा करने के क़ाबिल न है।कितना बेहतर और कितना व्यावहारिक होगा कि हम ऐसे सभी खातों को बंद करदें और इस दौड़ती - भागती जिन्दगी में जो भी थोड़ा सा वक़्त मिलता है वो उनके साथ गुजारें जिनके लिए हमारी भावनाएँ इमानदार हैं और मौलिक भी ........................  



1 comment:

  1. good pieces of poetry,,,,very natural and romantic feeling...keep it up dear

    ReplyDelete